Friday, April 27, 2012

इस देश में सब कुछ है मगर ज़िन्दगी नहीं

(Published In The "Patrika-Jabalpur Edition" Newspaper on 29/04/2012)


ये एक जलता हुआ चिराग है..
इस चिराग के नीचे अँधेरा है..
काश ये अँधेरा रात का होता,
तो उम्मीद फिर सुबह की होती.
ये वो अँधेरा है जिसकी किस्मत में रौशनी नहीं..
है ये वो देश जहा सब कुछ है मगर ज़िन्दगी नहीं..

साँसे चलती है मगर दिल बेजान है.,
कायनात हासिल है लेकिन आदमी मुक्कम्मल नहीं..
बदला हुआ संसार देखना है थो खुद को बदल डालो,
फिर देखना हर एक शय कितना चमक उठता है..
शिकायतें हजारो है और मन कभी भरता नहीं..
है ये वो देश जिसमे सब कुछ है मगर ज़िन्दगी नहीं..

फलक पे देखो तो तारे हजारों है..
ज़मीन पे न जाने फसल इतना कम क्यों है..
अमीरी की महफ़िल में प्यास शहद से भुजती है..
गरीब की थाली सूनी है और सूनी ही रहती है..
क्या कसूर है उन बच्चों का जो हाथ बढ़ाते है सिक्कों के लिए..
भूख में इंसान मीटटी को भी रोटी समज लेता है..
ये वो आलम है जिसमे नफरत है मोहब्बत नहीं..
है ये वो देश जिस में सब कुछ है मगर ज़िन्दगी नहीं..

गुरुर को सुलाकर नजाकत को जगा दो..
शाम हो चुकी है संसार में एक शम्मा जला हो..
इसकी रौशनी से जहाँ का अँधेरा मीटा दो.

फिर आएगी चरागों के नीचे भी रौशनी..
फिर दोहरा जायेगा यहाँ खुशियों की अमर कहानी..
सपनो को हकीकत में बदल दो अब सिर्फ बातें नहीं..
क्यों की इस देश में सब कुछ है मगर ज़िन्दगी नहीं..